कई साल पहले की बात है। विजयनगर नाम का एक राज्य था, जहां के राजा कृष्णदेव राय थे। कृष्णदेव राय हर साल विजयनगर का वार्षिक उत्सव बहुत ही धूमधाम से मनाते थे। पड़ोसी राज्यों से अच्छी मित्रता होने के कारण वहां के राजा भी इस उत्सव में शामिल होते थे और राजा कृष्णदेव राय को उपहार व भेंट देते या भेजवाते थे। हर साल की तरह इस बार भी विजयनगर वार्षिक उत्सव मनाया गया और इस अवसर पर राजा कृष्णदेव राय को चार बेशकीमती फूलदान उपहार में मिलें।
फूलदानों को देखते ही राजा का मन उन पर आ गया, और ऐसा होता भी क्यों न? उन सभी फूलदानों की शोभा देखते ही बनती थी। उन्हें देखकर ऐसा लगता था मानों प्रकृति के सभी रंगों को मिलाकर उन्हें रंगा गया हो व गहन नक्काशी से तराशा गया हो।
जब बात इन फूलदानों की देखरेख की आई, तो महल के सबसे काबिल सेवक रमैया को इसका कार्यभार सौंपा गया। रमैया भी खूब ध्यान से उनका ख्याल रखने लगा। वह उन पर कभी धूल न लगने देता, बड़े सलीके से फूलों को सजाता व फूलों से बढ़कर फूलदानों की देखरेख करता।
ऐसे ही एक दिन जब वह फूलदान साफ कर रहा था तो अचानक एक फूलदान उसके हाथों से फिसलकर जमीन पर जा गिरा और चूर-चूर हो गया। यह देखकर वह डरकर वहीं जम गया।
इस बात की खबर जब राजा कृष्णदेव राय तक पहुंची तो वह गुस्से से आगबबूला हो गए। उन्होंने आवेश में आकर सेवक रमैया को फांसी की सजा सुना दी। बेचारा रमैया फांसी की सजा सुनकर रोने व कांपने लगा। उसी सभा में राजा के प्रिय अष्ट दिग्गजों में से एक तेनालीराम भी बैठे थे और यह सब देख रहे थे। उन्होंने राजा को इस विषय में कुछ समझाना चाहा और अपनी राय देनी चाही। उस समय राजा का गुस्सा सातवें आसमान पर था और वे किसी की भी बात सुनने को राजी नहीं थे। इसलिए स्थिति को भांपते हुए तेनालीराम ने चुप रहना ही ठीक समझा।
फांसी का दिन तय किया गया। सेवक रमैया का रो-रोकर बुरा हाल था। ऐसे में जब तेनालीराम रमैया से मिलने के लिए गए तो रमैया उनसे अपने प्राणों को बचाने की गुहार लगाने लगा। तेनालीराम ने रमैया के कानों में धीरे से कुछ कहा, जिसे सुनकर उसके चेहरे के भाव कुछ शांत हुए और उसने अपने आंसू पोंछे।
आखिरकार फांसी का दिन भी आ ही गया। रमैया निश्चिंत, शांत खड़ा था। फांसी देने से पहले रमैया से उसकी आखिरी इच्छा पूछी गई। रमैया ने झट से जवाब में कहा कि वह मरने से पहले बचे हुए तीनों फूलदानों को एक अंतिम बार देखना व छूना चाहता है। सभी को उसकी यह इच्छा सुनकर बहुत हैरानी हुई।
आदेशानुसार तीनों फूलदानों को मंगवाया गया। रमैया ने पहले सभी फूलदानों को निहारा, उन्हें धीरे से उठाया और एक-एक करके सभी फूलदानों को जमीन पर पटक दिया जिससे वे टूट कर बिखर गए। राजा यह देखकर गुस्से से लाल हो गए और उन्होंने रमैया से पूछा, “मूर्ख! तेरी इतनी हिम्मत। बोल तूने ऐसा दुस्साहस क्यों किया?”
रमैया ने थोड़ा मुस्कुराकर जवाब दिया, “मेरे भूल के कारण आपका एक बेशकीमती फूलदान टूट गया, जिसकी वजह से मुझे मृत्युदंड मिल रहा है। अगर भविष्य में किसी सेवक द्वारा ये तीनों फूलदान गलती से टूट जाते हैं तो मैं नही चाहता कि उन्हें भी मेरी तरह मृत्युदंड मिले और ये दिन देखना पड़े। इसलिए मैनें स्वयं ही बाकी बचे हुए फलदानों को तोड़ दिया।”
यह सुनकर राजा का गुस्सा शांत हुआ। उन्हें समझ में आ गया कि किसी व्यक्ति की जिंदगी एक निर्जीव फूलदान से बढ़कर नहीं हो सकती है, तथा वह गुस्से में आकर एक तुच्छ वस्तु के लिए किसी भी व्यक्ति के प्राण नहीं ले सकते। उन्होंने सेवक रमैया को उसकी गलती के लिए माफ कर दिया।
साथ में खड़े तेनालीराम यह सब देख मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। राजा ने रमैया से पूछा कि ‘तुम्हें ऐसा करने को किसने कहा था?’ रमैया ने राजा को सारी बात बताई कि ऐसा तेनालीराम ने उसे करने को कहा था। यह सुनते ही राजा ने तेनालीराम को गले से लगा लिया और कहा, “तेनालीराम, आज तुमने मुझे बहुत बड़ी भूल करने से बचा लिया और साथ ही एक काबिल सेवक की जान भी बचा ली। आज की इस घटना से मुझे यह समझ में आ गया है कि मनुष्य को गुस्से में आकर कोई भी फैसला नहीं करना चाहिए तथा किसी भी जीव के प्राण किसी वस्तु से कहीं बढ़कर हैं। इसके लिए शुक्रिया तेनालीराम।”
कहानी से सीख
इस कहानी से हमें दो सीख मिलती है, पहला यह कि हमें आवेश में आकर कोई भी फैसला नहीं करना चाहिए। गुस्से में लिए गए फैसले अक्सर गलत साबित होते हैं। दूसरा यह कि किसी भी वस्तु के लिए हमें किसी इंसान के जीवन को खतरे में नहीं डालना चाहिए। किसी भी वस्तु का मोल किसी इंसान की जिंदगी से ज्यादा नहीं होता है।
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